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क्या रास लीलाएं बंद नहीं होनी चाहिए ?

आक्रोशित मन
आक्रोशित मन
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कृष्ण जन्माष्ठमी नजदीक है और इनदिनों मंदिरों तथा संपन्न   घरो द्वारा   कृष्ण लीला  या रासलीला का आयोजन करवाना आम हो जाता है , कहीं – कहीं मौहल्ले में बनी सोसाईटी द्वारा भी इसका  आयोजन  बड़े जोरो- शोरो और भव्य तरीके से किया जाता है|
इन रास लीलाओं को देख कर दर्शक बहुत आनंदित होते हैं पर इन लीलाओं के पीछे जो काला सच छुपा हुआ है उन से शायद ही कोई वाकिफ हो |

चलिए …..आप भी देखिये की इन रासलीलाओं को  करने वाले इन बाल कलाकारों  के अभिनय  पीछे कौन सा दर्द छुपा हुआ है |

रासलीला में बालको द्वारा श्रीकृष्ण की बाललीलाओं जैसे दानलीला , मान लीला , चीरहारण लीला आदि लीलाओं का प्रदर्शन किया जाता है , इन लीलाओं के मुख्य पात्र कृष्ण – राधा तथा  साथ में कुछ गोपियाँ -ग्वालबाल , यसोदा -नन्द होते हैं |
कोई भी लीला आरंभ होने से लगभग एक घंटे पहले राधा, कृष्ण, सखियाँ का भेष बनाये हुए छोटे छोटे लड़के तरह तरह के नृत्यों का प्रदर्शन करते हैं |
ये लीलाएं सूरदास , नन्द दास के पदों पर आधारित होने के कारण गीतात्मक ही  होती हैं |
रासलीला में जितने छोटे बच्चे होते है वो उतनी ही उत्तम मण्डली मानी जाती है, कई लीलाओं में तो ४-५ साल के बच्चे भी अभिनय करते हुए मिल जायेंगे , जितने छोटे कलाकार उतने अच्छे मण्डली के दाम|

पन्द्रह -सोलह वर्ष की उम्र के बाद लड़के रासलीला नहीं करते हैं , जिस प्रकार कुम्हार अपने बूढ़े गधे को स्वतंत्र कर देता है वैसे ही रासलीला मण्डली चलाने वाला इन लडको को स्वतंत्र कर देता है | इसके बाद ये लड़के या तो मारे -मारे फिरते हैं या फिर नयी मण्डली बना के दुसरो को नाचना शुरू कर देते हैं |
रासलीला करने वाले इन लडको को होश सँभालते ही नाच -गाने की शिक्षा देना आरम्भ कर दिया जाता है , इस से इन लडको को इतना बिज़ी रहना पड़ता है की उन्हें पढने लिखने या अन्य कार्य सिखने का समय ही नहीं मिल पता | रासलीला करने के लिए इन लडको को गीत और नृत्य के साथ साथ बहुत से संवाद भी मुंहजबानी याद करने होते हैं |
ये बालक जब लीलाएं खेलने लगते हैं तब भी उनके माँ-बाप उनके पढने लिखने की तरफ ध्यान नहीं देते , एक मण्डली  मिलने के बाद पैसा कमाने के चक्कर में   रातदिन में लगभग तीन लीलाए  खेल लेते हैं , इन कोमल बच्चो के लिए तीन घंटे की एक लीला ही बहुत होती है थकाने के लिए उस पर घंटो अभ्यास अलग से …..आप सोच सकते हैं की क्या बिताती होगी इन छोटे -छोटे बच्चो पर |
इन लीलाओं से थोडा समय मिलता भी है तो मण्डली वाले इन बच्चो के भविष्य की चिंता ना कर के इन्हें अपनी कला का कठिन अभ्यास करते हैं , नई-नई लीलाओं के संवादों को याद करना , नए -नए नृत्य सीखना , आदि सब काम करते हैं क्यों की मण्डली का मालिक तो अधिक से अधिक पैसा कमाने के चक्कर में रहेगा और वो तभी संभव है जब ये बच्चे अपने काम में निपुण होंगे|

वैसे तो रासलीला करते समय बच्चो की अवस्था ऐसी नहीं होती की वो स्वयं अपने भविष्य की चिंता कर सके पर इनके माँ बाप को भी इनके द्वारा पैसे कमाने  के कारण अनदेखी कर देते हैं | रासलीलाओं में इन बाल कलाकारों के साथ व्यवहार भी और बच्चो से अलग किया जाता है , इन्हें विशेष सम्मान दिया जाता है , यजमान तथा रासलीला देखने वाले भी इन्हें अवतार समझ लेते हैं …इनक���� पैर छुते हैं   , पैसा आदि चढाते हैं जिस से इन कोमल हृदय बच्चो के मन में गहरा असर होता है |

पन्द्रह साल की उम्रे में अपने से बड़े उम्र के व्यक्ति (रासलीला करवाने वाला तथा दर्शक ) से पैर पुजवाते हुए इन बालको के मन में अपने को अवतारित होने का विश्वास घर कर लेता है परन्तु जब अगले साल ही इन्हें मण्डली से निकाल दिया जाता है तो अपने को साधारण बालक पा कर बहुत अघात होता है जिससे ये अपने को साधारण जीवन जीने के लिए तैयार करें में कठिनाई महसूस करते हैं |
इनमें से अधिकतर लड़के पण्डे , पुजारी ,या फिर मण्डली में साज बजने का काम करने लग जाते हैं |
होश सँभालते ही कृष्ण लीलाएं करने से ये लड़के इतने प्रभावित होते हैं की इन्हें कोई और काम पसंद ही नहीं आता , किन्तु रासलीला मण्डली सिमित होने के कारण कुछ ही लडको को काम मिल पता है |
जो लड़के पढलिख कर डाक्टर ,इंजिनियर , व्यापारी ,सैनिक आदि बनके  कर समाज और देश की सेवा कर सकते थे वो पण्डे -पुजारी या ढोल -मंजीरे बजानेवाले बन जाते हैं |

और हाँ …एक बात राम लीला करने वाले और रासलीला करने वाले बाल कालकारो में फर्क होता है क्यूँ की राम लीला राल में एक बार आती है वो भी कुछ दिनों के लिए पर रास लीलाएं साल भर चलती रहती हैं |

आप सब से  प्रश्न ….क्या रास लीलाएं बंद नहीं होनी चाहिए ?क्या रासलीलाओं में छोटे बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ बंद नहीं होना चाहिए ?

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