Menu
blogid : 12015 postid : 788865

कुर्बानी के नाम पर मांसाहार कितना उचित?

आक्रोशित मन
आक्रोशित मन
  • 44 Posts
  • 62 Comments

कुर्बानी का दिन नजदीक आ रहा है ,इस बार भी लाखो जीव हत्या केवल अल्लाह के नाम पर हो जाएगी , हलाकि अल्लाह शायद ही किसी जीव की हत्या पर खुश होता होगा । पर उसके अनुयाई अवश्य ही कुर्बानी के नाम पर खाके खुश होते हैं।

फिर भी यदि माना जाये की अल्लाह क़ुरबानी से खुश होता है तो कुर्बानी की प्रथा हजरत इब्राहीम जी ने अपने पुत्र की दे के शुरू की थी , यदि वास्तव में मुस्लिम भाई अल्लाह को खुश करना चाहते हैं तो क्यों न वे अपने पुत्र की कुर्बानी दिया करे?
यदि वाकई उनकी आस्था मजबूत है और अल्लाह खुश होता है तो अवश्य ही उनके पुत्र को बचाने आएगा जैसे इब्राहिम जी के पुत्र को बचाया था।

दूसरी बात, यदि कुर्बानी में जीव हत्या इतनी ही पवित्र है तो मुसलमान भाई मस्जिदों में कुर्बानी क्यों नहीं करते?

इसके आलावा कई मुस्लिम भाई यह कह के जीव हत्या को जायज ठहराते हैं की यदि जीव हत्या बुराई का प्रतीक है तो संसार में सभी लोग इस बुराई को करते हैं।
उनके अनुसार वैज्ञानिको ने यह प्रमाणित कर दिया है की पेड़ पौधों में भी जीव होता है , इस प्रकार शाकाहार ही एक जीव हत्या है।

उनकी इस बात से सहमत हुआ जा सकता है की पेड पौधों में भी जीवन होता है और उनकी हत्या भी हत्या ही कहलाई जाएगी ।
पर इस शाक हत्या और पशु हत्या में फर्क है, यह फर्क क्या है इस उदहारण से समझिये।
जैसे किसी भी समाज मे रहने वाले पुरुष की पत्नी में भी वही शारीरिक अंग होते हैं जो उसकी सगी बहन में । पत्नी भी उसी प्रकार जैविक क्रियाये करती है जैसे की उसकी बहन, जीवन पत्नी में भी है और बहन में भी ।

फिर भी किसी भी समाज में अपनी सगी बहन से विवाह करना निषेध है ,यंहा तक की पोधो और पशुओ को जीवन जे आधार पर एक समझने वाले और इसके चलते पशु हत्या को उचित मानाने वाले मुस्लिम भाइयो में भी ।
फिर क्या कारण है की कोई भी मांसाहारी पत्नी और बहन में समान जीवन होने के बाद अपनी सगी बहन से विवाह नहीं करता ?

क्यों की नैतिकता ऐसा करने से रोकती है? इंसानियत ऐसा करने से रोकती है।
इसलिए ऐसा भेद किया गया है, इसलिए मांस खाना नैतिकता नहीं है ।

एक फर्क और देखिये, यदि किसी व्यक्ति को जीवन भर केवल शाक दिया जाए खाने को तो शायद उसके जीवन में स्वास्थ सम्बन्धी कोई परेशानी हो परन्तु यदि किसी व्यक्ति को केवल मांस ही दिया जाए खाने को तो निश्चय ही कुछ दिनों में वह बीमार पड जायेगा।

इसके आलावा यदि मुस्लिम भाई यह कहते हैं की पेड पौधों और पशुओ में समान जीवन है तो मुस्लिम भाई शाक खाते समय उन्हें हलाल क्यों नहीं करते?

अब ऐसा भी नहीं है की हिन्दू लोग बली नहीं देते या मांस नहीं खाते उनके लिए भी यही तर्क है जो मुस्लिम भाइयो के लिए है।
वैसे कोर्ट ने हिन्दू मंदिरों में बलि प्रथा पर रोक लगाई है शायद इससे कुछ फर्क पड़े क्यों की किसी भी हिन्दू ने इसके खिलाफ अपील नहीं की है।

पर मुस्लिम भाइयो से क्या ऐसी उम्मीद की जा सकती है? अभी दो दिन पहलेPETA के एक महिला कार्यकर्त्ता की इसलिए पिटाई कर दी गई थी की वह शाकाहारी ईद के लिए अपील कर रही थी,तो ऐसे में क्या कोई उम्मीद की किरण नजर आती है की इस सामूहिक बलि प्रथा के खिलाफ कोई मुस्लिम भाई बोलेगा?

Read Comments

    Post a comment